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२४ अप्रैल, १९५७
''भौतिक जगत्में दिव्य जीवनका आवश्यक रूपसे अर्थ होता है सत्ताके दो छोरोंका, आध्यात्मिक ऊंचाई और भौतिक आधारका मिलन । अंतरात्मा 'जडूतत्व'पर स्थापित जीवनको अपना आधार बनाकर आत्माकी ऊंचाइयोंकी ओर चढ़ती है पर अपने आधार- को फेंक नहीं देती, वह ऊंचाइयों और गहराइयोंको एक-दूसरेसे मिला देती है । आत्मा 'जडुतत्व' और भौतिक जगत्में अपनी समस्त ज्योति, महिमा और शक्तिके साथ नीचे उतर आती और इनसे जड़ जगतके जीवनको भरती और उसे रूपा- तरित करती है ताकि वह अधिकाधिक दिव्य होता जाय । रूपांतर किसी ऐसी चीजमें परिवर्तन नहीं है जो नितांत सूक्ष्म और आध्यात्मिक हो, जिसके लिये 'जड-तत्त्वकी' अपने स्वरूपमें ही घृणायोग्य हो और जो इसे आत्माको नीचे रोक रखनेवाली बाधा था बेड़ी समझता हो; यह 'जडूतत्व'को आत्माका रूप समझकर ग्रहण करता है, यद्यपि अभी यह रूप उसे आवृत करता है पर वह इसे आत्माको व्यक्त करनेवाले साधनामें बदल देता है, यह 'जडुतत्व'की शक्तियोंका, उसकी क्षमताओं और पद्धतियोंका त्याग नहीं करता, उनकी गुप्त संभावनाओंको प्रकाशमें लाता, उन्हें समुत्रत और परिष्कृत कर उनके स्वभावगत दिव्यतत्वको प्रस्फुटित कर देता है । सो दिव्य जीवन किसी ऐसी चीजका परित्याग नहीं करेगा जो दिव्य बनने योग्य हो; हमें सभी चीजोंको हाथमें लेना है, समुन्नति करना है और एकदम पूर्ण बनाना है...
पूर्णताकी खोजमें हम अपनी सत्ताके किसी भी छोरसे चलना शुरू कर सकते हैं पर, कम-से-कम प्रारंभमें, हमें अपने चुनावके अनुरूप ही साधनों और प्रक्यिाओंका उपयोग करना होता है । योगमें जो प्रक्यिा उपयोगमें लायी जाती है बह आध्यात्मिक और चैत्य है, यहांतक कि उसकी प्राणिक और भौतिक प्रक्यिाओंको भी आध्यात्मिक या चैत्य रूप दे दिया जाता है और साधारण जीवन और जडतत्वसे संबंध रखनेवाली उनकी अपनी गतिसे अधिक ऊंची गतिमें उठा दिया जाता है, जैसे कि हठयोग और राजयोगमें प्राणायाम और आसनोंका उपयोग.... ।
८५ दूसरी ओर, अगर हम निम्नतर छोरके किसी क्षेत्रसे शुरू करें तो हमें उन्हीं साधनों और प्रक्यिाओंका उपयोग करना होता है जिन्हें 'जीवन' और 'जडतत्व' प्रस्तुत करते हैं और प्राणिक ओर भौतिक शक्ति जिन शर्तो और जिस शैलीको आरोपित करती है उनका आदर करना होता है । हम क्रिया-प्रवृत्तिको, प्राप्त उप- लब्धि और पूर्णताको, पहली स्थितिसे आगे बढ़ा सकते हैं, यहां- तक कि सामान्य संभावनाओंसे भी परे लें जा सकते है, पर फिर भी हमें खड़ा होना होता है उसी आधारपर जिससे हमने शुरू किया था और उन्हीं सीमाओंके भीतर जो यह हमें देता है । यह बात नहीं कि दोनों छोरोंकी क्रिया मिल नहीं सकती और उच्चतर पूर्णता निम्नतर पूर्णताको अपने अंदर ले नहीं सकती और उसे ऊपर नहीं उठा सकती, परंतु सामान्यतः यह केवल तभी होता है जब निम्नतर पूर्णता एक उच्चतर दृष्टि, अभीप्सा और प्रयोजनकी ओर मुड जाती है : और यदि हमारा लक्ष्य मानव जीवनका दिव्य जीवनमें रूपांतर हो तो हमें यह करना ही होगा । परंतु इसके लिये यह आवश्यक हो जाता है कि मानव जीवनकी क्यिा-प्रवृत्तियोंको हाथमें लिया जाय और उन्हें आत्माकी शक्तिद्वारा परिष्कृत कर उदात्त बनाया जाय । यहां निम्नतर पूर्णता लुप्त नहीं हो जायेगी; वह रहेगी पर उच्च- तर पूर्णताद्वारा परिवर्धित एवं रूपांतरित हो जायेगी और इस उच्चतर पूर्णताको केवल आत्माकी शक्ति ही दे सकती है ।
( अतिमानसिक अभिव्यक्ति)
मधुर मां, श्रीअरविन्दने यहां उच्चतर पूर्णता और निम्नतर पूर्णताकी बात कही है...
उच्चतर पूर्णता है आध्यात्मिक पूर्णता, भगवान्के साथ पूर्ण मिलन और तादात्म्य, तथा निम्न जगत्की सभी सीमाओंसे मुक्ति । यह आध्यात्मिक पूर्णता है, यह योग करनेसे आती है -- यह शरीर और भौतिक जगत् से सर्वथा स्वतंत्र होती है -- इसके लिये प्राचीन समयमें पहली आवश्यकता थी शरीर और भौतिक जीवनको एक तरफ रख देना ताकि उच्चतर जगत्- सें और अंतमें भगवान्से संबंध स्थापित किया जा सकें । तो यह हुए उच्च- तर पूर्णता ।
और निम्नतर पूर्णता है मनष्यको उसके वर्तमान रूप, उसके शरीर और
८६ सभी भौतिक वस्तुओंके साथ उसके संबंधके रहते हुए जो वह अधिक-से- अधिक कर सकता है उसमें सफल बनाना । और यह सभी महान् प्रतिभाशाली व्यक्तियों, प्रतिभाशाली कलाकारों, साहित्यिकों, प्रतिभाशाली व्यवस्थापकों और महान् प्रशासकोंमें पायी जाती है । उन सबमें पायी जाती है जिन्होंने भौतिक क्षमताओंको उनकी उच्चतम पूर्णतातक और मानव विकासको उसकी शक्यताओंकी चरम सीमातक पहुंचाया है । हम उदाहरण ने सकते है उन लोगोंका जिनका अपने शरीरपर प्रभुत्व है और जो अद्भुत चीजों कर लेते हैं जैसे कि युद्धके दिनोंमें विमान-चालकोंने कर दिखायी थीं । उन्होंनें अपने शरीरसे ऐसी चीजों करवायीं जो प्रथम दृष्टिमें असंभव प्रतीत होती थीं; ऐसी सहनशीलता, शूरवीरता, शक्ति इसमेंसे उपलब्ध की जो लगभग अकल्पनीय थी, सभी दृष्टियोंसे : शारीरिक। बल, बौद्धिक उपलब्धि और शक्ति, साहस, नि:स्वार्थता, उदारता, परोपकारको व्यक्त करनेवार्दने भौतिक गुणोंकी दृष्टिसे अकल्पनीय थी । वे सभी मानवीय क्षमताओंको परिश्रमसे चरम पराकाष्ठातक ले गये । यह है निम्नतर पूर्णता ।
उच्चतर पूर्णता आध्यात्मिक और अतिमानवीय पूर्णता है । निम्नतर पूर्णता मानवीय पूर्णता है जिसे उसकी चरम पराकाष्ठातक पहुंचानेकी चेष्टा की गयी है । यह समस्त आध्यात्मिक जीवन एवं आध्यात्मिक अभीप्सासे पूर्णत: स्वतंत्र हो सकती है । कोई व्यक्ति बिना किसी आध्यात्मिक अभीप्साके भी प्रतिभाशाली हो सकता है । किसी ब्यक्तिमें आध्यात्मिक जीवनके बिना भी अत्यंत असाधारण नैतिक गुण हो सकते है । सामान्यत: जिनमें मानवीय उपलब्धिकी बहुत बड़ी शक्ति होती है वे अपनी स्थितिसे संतुपुट -- कम या अधिक संतुष्ट - रहते हैं । वे अनुभव करते है कि वे आत्म-पर्याप्त हैं, अपनी उपलब्धि और अपने सुरवका स्रोत अपने ही अंदर लिये है, और उन्हें यह समझाना और महसूस कराना बहुत कठिन होता है कि वे अपने कार्यके, बे चाहे कुछ भी हों, निर्माता नहीं हैं । इनमें अधिकतर लोग, कुछ अपवादोंको छोड़कर ऐसे होते हैं जिनसे यदि कहा जाय : ''इस कामको तुमने नहीं, बल्कि तुमसे उच्चतर किसी शक्तिने किया है, तुम तो, बस, एक यन्त्र मात्र थे,'' तो वे इसे बहुत अधिक नापसंद करेंगे और तुम्हें अपना रास्ता नापनेके लिये कहेंगे । इसलिये ये दोनों पूर्णताऐं, सामान्य जीवनमें, वस्तुतः' अलग-अलग ही चलती हैं । पुराने योगोंमें कहा जाता था कि योग करनेकी पहली शर्त है जीवनसे विरक्ति । परन्तु जो लोग कुछ मानवीय पूर्णता पा लेते हैं, सामान्यत: जीवनसे बहुत कम ही विरक्त होते है जबतक कि कुछ ऐसा न हो कि उनके सामने कोई
८७ व्यक्तिगत कठिनाइयां न आ जायं -- जैसे आस-पासके लोगोंकी अकृतज्ञता, उनकी प्रतिभाको न समझना, उसका पूरा मूल्यांकन न होना - तब इस सबसे उनका दिल खट्टा हो जाता है, नहीं तो जबतक सफलता और सर्जन- का काम चलता है वे पूरी तरह संतुष्ट रहते है । और जबतक वे संतुष्ट रहते हैं - विशेषत:, अत्य-संतुष्ट रहते है -- तबतक उन्हें किसी और चीजको पानेकी आवश्यकता महसूस नहीं होती ।
यह अनिवार्य रूपसे सच नहीं होता, पर सामान्यत: ऐसा ही होता है । और जबतक किसी प्रतिभाशाली व्यक्तिमें ऐसी आत्मा न हो जो अपने- आपसे पूरी तरह सचेतन हो और पृथ्वीपर किसी विशेष कार्यको पूरा करने- के लिये आयी हो, तबतक बहुत संभव है कि कोई प्रतिभाशाली व्यक्ति पैदा हो, बड़ा हो और यह जाने बिना मर भी जाय कि पार्थिव जीवनके अति- रिक्त कुछ और भी है । और सबसे बढ़कर यही, समझे, यही भावना कि अधिकतम उपलब्धि हो चुकी है एक ऐसी संतुष्टि प्रदान करती है जो व्यक्तिको किसी अन्य चीजकी आवश्यकता अनुभव करनेसे रोके रखती है... । यदि उनकी आत्मा अपने-आपसे और भौतिक जगत्में अपने प्रयोजनसे पूरी तरह सचेतन हो तो उन्हें एक धुंधला आभास मिल सकता है कि यह सब बहुत खोखला है, ये सब उपलब्धियां या सफलताएं बहुत ऊपरी हैं और कोई ऐसी चीज है जो अभीतक अप्राप्त है; पर यह आभास भी केवल दैवनिर्दिष्ट व्यक्तियोंको ही मिलता है और वास्तवमें मानवजाति- के इतने बड़े समुदायमें ऐसे लोग बहुत नहीं होते ।
केवल ये दैवनिर्दिष्ट लोग ही इन दो पूर्णताओंको मिला सकते है और किसी सर्वांगीण वस्तुको प्राप्त कर सकते है.. । किंतु यह बहुत विरल है । महान् आध्यात्मिक नेता बहुत कम ही भौतिक जगत्में कोई महान् काम कर पाये हैं । ऐसा हुआ अवश्य है, पर यह बहुत विरल है 1 भगवान्- के जो सचेतन अवतार हुए है केवल उन्हींमे, स्वभावत:, इन दो पूर्णताओंकी संभावना रही है, पर यह तो अपवादकी बात है । जिन लोगोंका जीवन आध्यात्मिक था, जिन्हें कोई महान् सिद्धियां प्राप्त थीं, उनके पास किन्हीं विशेष क्षणोंमें बाह्य चरितार्थताकी योग्यता भी रही है, यह भी अपवादकी ही बात है, लेकिन यह भी अविच्छिन्न नहीं थीं, उसमें वह समग्रता, वह सर्वांगीणता, वह पूर्णता नहीं थी जो भौतिक चरितार्थतापर ही अपनेको केंद्रित करनेवाले व्यक्तियोंमें पायी जाती है । और यही कारण है कि जो लोग केवल बाह्य चेतनामें निवास करते है, जिनके लिये स्थूल पाथिव जीवन ही सब कुछ है और जिसका वास्तवमें अस्तित्व है, जो एकदम यथार्थ, प्रत्यक्ष और सबके लिये अनुभवगम्य है, वे सदा यह महसूस करते
८८ प्रश्न और उत्तर ८९ हैं कि आध्यात्मिक जीवन कुछ अस्पष्ट-सी और भौतिक दृष्टिसे अति सामान्य चीज है ।
मुझे ऐसे बहुत-से व्यक्ति मिले है -- ''बहुत'' से, हां, काफी अच्छी संख्यामें -- जो यह दिखाना चाहते थे कि आध्यात्मिक शक्तियां बाह्य प्राप्ति- के लिये बहुत बड़ी योग्यता प्रदान करती हैं । उन्होंनें अपनी असाधारण आध्यात्मिक अवस्थाओंमें चित्र बनाने या संगीत रचने या कविता लिखनेकी कोशिश की, पर जो कुछ उन्होंने रचा वह बिलकुल घटिया था; उसकी तुलना उन प्रतिभावान् कृतियोंसे नहीं की जा सकती जिन्होंने भौतिक कला- को हस्तगत किया 'अत । और इसने, अवश्य हीं भौतिकवादी लोगोंको यह कहनेका एक सुंदर अवसर दिया. ''देखा, तुम्हारी तथाकथित शक्ति किसी कामकी नहीं निकली ।'' परन्तु इसका कारण यह है कि अपने बाह्य जीवनमें वे केवल साधारण व्यक्ति थे, क्योंकि यदि अत्यधिक महान् आध्यात्मिक शक्ति एक अशिक्षित जड़ व्यक्तिमें प्रवेश कर भी जाय, तो वह स्पष्ट ही ऐसी कृति तो उत्पन्न करेगी जो उस कृतिसे कहीं अधिक ऊंची होगी जो उस शक्तिके बिना की जाती, पर उस कृतिसे काफी निचले दर्जेकी होगी जिसे एक! ऐसा प्रतिभाशाली व्यक्ति उत्पन्न करता जिसका भौतिकपर अधि- कार है । आत्माका श्वास ही काफी नहीं है, यंत्रमें भी उसे व्यक्त करने- की योग्यता चाहिये ।
मेरा ख्याल है श्रीअरविंद जो बातें समझाने जा रहे है उनमेंसे एक यह है कि यह क्यों जरूरी हैं कि भौतिक बाह्य सत्ताका मी पूरा विकास हो, उसमें जडतत्वपर सीधा अधिकार करनेकी योग्यता हो, क्योंकि तब तुम आत्माके हाथमें एक ऐसा यंत्र सौप देते हो जो उसे व्यक्त कर सकता है, नहीं तो... । हां, मैं. ऐसे भी कई लोगोंको जानती थी जो अपनी साधारण अवस्थामें तीन प्रक्रियाँ भी बिना गलती किये नहीं लिख सकते थे, उनमें केवल वर्तनीकी भूले ही नहीं, व्याकरणकी भूलें भी होती थीं, अर्थात् जो किसी विचारको स्पष्टतासे व्यक्त नहीं कर सकते थे -- पर, जब बे अपनी आध्यात्मिक अभीप्साके क्षणोंमें होते तो बहुत सुन्दर चीजों लिखा करते थे, पर फिर भी ये सुन्दर चीजों वैसी सुन्दर नहीं होती थीं जैसी उच्चकोटिके लेखकोकी । बे अपनी सामान्य अवस्थामें जो कर सकते थे उसकी तुलनामें बढ़िया प्रतीत होती थीं । यह सच है कि इनमें उनकी अधिकतम वर्तमान क्षमताओंका उपयोग हुआ था, इसीने उन चीजोंको कुछ मूल्य दिया जो अन्यथा कुछ भी न हो पाती । परन्तु मान लो तुम्हारे सामने सच्चे अर्थोंमें एक प्रतिभाशाली व्यक्ति है - प्रतिभावान् संगीतज्ञ, कलाकार, साहित्यिक - जिसका अपने यंत्रपर पूरा अधिकार है, जो उसका
८९ उपयोग ऐसी रचनाके लिये कर सकता है जिसमें उच्चतम मानवीय संभावना व्यक्त हो, तो अब यदि तुम उसमें एक आध्यात्मिक चेतना, अति- मानसिक शक्तिको जोड़ दो तो तुम्हें सचमुच एक दिव्य चीज मिलेगी ।
और ठीक यही उस प्रयासकी कुंजी है जो श्रीअरविंद हमसे करवाना चाहते थे।
तुम्हारा शरीर अपनेमें जिन संभावनाओंको छिपाये हुए है यदि तुम उन्हें बाहर निकाल लाओ, यदि तुम इसे सामान्य, सुपरिचित, वैज्ञानिक पद्धतियों- द्वारा प्रशिक्षित करो, यदि तुम इस यंत्रकों अधिकतम संभव रूपमें पूर्ण बना दो तो जब अतिमानसिक सत्य उस शरीरमें प्रकट होगा तो तुरत - बिना सदियोंकी तैयारीकी आवश्यकताके -- वह आत्माको व्यक्त करनेवाला अद्भुत यंत्र बन जायेगा ।
यही कारण है कि श्रीअरविंद सदा ही यह कहते और दोहराते रहे हैं : दोनों छोरोंपर काम करो, एकके लिये दूसरेकी अवहेलना न करो । निश्चित ही, यदि तुम दिव्य चेतना प्राप्त करना चाहते हो तो तुम्हें आध्या- त्मिक अभीप्साका त्याग नहीं करना चाहिये, किंतु यदि तुम पृथ्वीपर एक पूर्ण दिव्य सत्ता बनना चाहते हो तो इसका पूरा ध्यान रखो कि दूसरा सिरा छूट न जाय, और अपने शरीरको भी जितना संभव हो उतना बढ़िया यंत्र बनाओ ।
सामान्य मानव बुद्धिकी यह बीमारी है -- जो पार्थक्य एवं विभाजनसे उत्पन्न होती है -- कि वह ऐसे काम करती है मानों चीज सदा था तो यह होती है या वह । यदि तुम इसे चुनते हो तो उससे मुंह मोड लेते हों और यदि उसे चुनो तो इधर पीठ कर लेते हों ।
यह दरिद्रता है । तुम्हें सभी चीजोंको ग्रहण करना, उन्हें एकत्रित करना और सुसमन्वित करना जानना चाहिये । तब वह एक संपूर्ण प्राप्ति होगी ।
(बच्चोंकी ओर मुड़ते हुए) तुम्हें कुछ कहना है?
कहनेसे करना कहीं अधिक अच्छा है । और आज मैंने इसके लिये तुम्हें प्रोत्साहित किया है ।
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